बात बहुत ज़्यादा पुरानी नहीं है, लोगों को ऑरकुट का चस्का लग ही रहा था और लोग इंटरनेट पर रिजल्ट दिखने के साथ-साथ ईमेल आईडी भी बनाने लगे थे। साइबर कैफ़े खोलना नया एंट्रेप्रेनुएरियल आईडिया बन के उभर रहा था और युवा प्ले स्टेशन की दुकानों को छोड़ कर साइबर कैफ़े में 15-30 रूपए घंटा देकर इंटरनेट की दुनिया के लुत्फ़ ले रहे थे। नोकिआ का मॉडल 1160 स्टैण्डर्ड का नया प्रतिमान बन रहा था और लोग कॉलिंग पैक डलवाने के साथ-साथ मैसेज पैक भी डलवाने लगे थे।
लेकिन कहते हैं कि समय कभी एक सा नहीं रहता, निरंतर बदलते रहना उसका स्वभाव है। ऑरकुट के दिन फिरे और उसकी जगह फेसबुक ने ले ली और ट्राई ने एक दिन में 100 मैसेज भेजने की सीमा निर्धारित कर दी। ऑरकुट तक तो ठीक था लेकिन सिर्फ 100 मैसेज भेज पाने का दंश लोगों की सहनशीलता की परीक्षा ले रहा था। लोगों को अभी कुछ समय और इंतज़ार करना था और इसके अलावा उनके पास कोई चारा न था। दिल पे पत्थर रख और बेकार मैसेजेस को फॉरवर्ड न करके किसी तरह सिर्फ 100 मैसेजेस में ही प्रियतम और प्रियतमा अपने मनोभावों को अभिव्यक्त कर रहे थे।
अचानक प्रौद्योगिकी की दुनिया में एक नया सूरज चमका, मोबाइल कंपनियों का एक ऐसा दौर शुरू हुआ जो अभी तक जारी है। “हर हाथ मोबाइल” का नारा किसी भी अन्य नारे की अपेक्षा सबसे ज़्यादा फलीभूत हुआ। सभी लोगों ने प्ले-स्टोर के साथ व्हाट्सएप्प का दिल से स्वागत किया। मैसेज भेजना जैसे बंद ही हो गया और एक नया दौर शुरू हुआ जिसे हम सभी सोशल मीडिया का दौर कहते हैं।
90 के दशक में जन्मा हर व्यक्ति बदलाव की इस लहर का साक्षी है। विकास की दौड़ में व्हाट्सएप्प और फेसबुक ने हमारा बड़ा साथ निभाया है। और यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कम से कम सोशल मीडिया पर तो विकास के मॉडल का खूब बोलबाला है। ये दोनों हमारे ज्ञान के नए स्रोत हैं, इनसे कम समय में सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति की जा सकती हैं। हालाँकि इन सभी के बीच मिलने वाले ज्ञान की वैधता की कोई गारंटी नहीं है। लेकिन सिर्फ एक खामी की वजह से तो हम सोशल मीडिया जैसे अतुल्य ज्ञानार्जन केंद्र को त्याग तो नहीं सकते न। आपका क्या विचार है?
कहते हुए अच्छा तो नहीं लगता लेकिन हम सभी मूर्खता की सभी पराकाष्ठाओं को पार कर चुके होने के सभी रेकॉर्डों को ध्वस्त करते जा रहे हैं। व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में दाखिले के बाद अपने सोचने समझने की शक्ति का भी हमने त्याग कर दिया है। हम क्यों इतनी आसान बात नहीं समझ पा रहे कि कुत्सित मानसिकता से ग्रस्त लोग अपने प्रोपगैंडा को फ़ैलाने हेतु हमें इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरों की छवि को खराब कर, दूसरे धर्मों के प्रति द्वेष फैलाकर, दोषारोपण की राजनीति करके, परिवारवाद को बढ़ावा देकर और स्वार्थपरक राजनीति की मंशा से ऐसे लोग हमें बेवक़ूफ़ बना रहे हैं और उससे भी बड़ी बात यह की हम बेवक़ूफ़ बन भी रहे हैं। सिर्फ कुछ कार्टून या चित्र देखकर हम दूसरों के प्रति अपनी सोच का निर्माण कर रहे हैं जो कि न केवल हमारी सोच को बल्कि समाज को दूषित करता है। आपको जानकार आश्चर्य होगा कि किस प्रकार राजनीतिक दल अन्य उम्मीदवारों की छवि ख़राब करने हेतु करोड़ों रूपए खर्च करके उन्हें सोशल मीडिया पर बदनाम करने का अभियान चलाते हैं। लोगों का एक बहुत बड़ा जत्था ऐसे कार्टून या वीडियो तैयार करता है और सोशल मीडिया पर शेयर करता है। ऐसे अभियानों की पहुँच बढ़ाने के लिए पेड कैंपेन (पैसा देकर विज्ञापन) चलाए जाते हैं जिसके शिकार हम जैसे लोग हो जाते हैं।
सभी पाठकों से एक ही गुज़ारिश है कि सिर्फ ऐसी पोस्ट पढ़कर ही किसी व्यक्ति, समुदाय या घटना के प्रति अपनी सोच का निर्माण न करें। तथ्यों को वैध स्रोतों से जानने का प्रयास करें। उत्तेजक पोस्ट को लाइक, शेयर या फॉरवर्ड करने से पहले सुनिश्चित कर लें कि कहीं आप किसी के प्रचार प्रोपेगेंडा का शिकार तो नहीं हो रहे।
2 Comments
जय कुमार
(November 19, 2017 - 10:34 pm)विल्कुल सही अभिव्यक्ति
kusum9joshi
(November 20, 2017 - 1:12 pm)Your intelligence is reflecting in your topic selection and in your writing too