आँखें मूंदे बैठे हैं हम, अंधेरों में खोज लिया है सहारा,
रौशनी से अब लगता है डर, रहने दो यह अँधियारा।
(विवेक तड़ियाल “व्योम “)
उपर्युक्त पंक्तियाँ शायद आपको हतोत्साहित करने वाली लगी होंगी। लेकिन साहब क्या करें आज के समाज की यही स्थिति है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि हमें हर स्थिति में प्रेरणादायी विचार रखने चाहिए (जो कि सही भी है), लेकिन जिस प्रकार बीमारी का इलाज उसकी जड़ पर काम करने से होता है उसी प्रकार समाज उत्थान का कार्य भी जड़ पर काम करने से ही फलित हो सकता है। प्रेरक विचार और अच्छी सोच अपनी जगह पर अपना काम अवश्य करते हैं किन्तु वास्तविकता को आवरण से ढक कर उसे ठीक नहीं किया जा सकता।
इतने सालों की गुलामी ने कहीं न कहीं हमें मानसिक जंजीरों में बाँध दिया है। गुलामी का एक नया रूप आज सामने है “लोकतान्त्रिक गुलामी”। पढ़ने में कुछ अजीब लगता है कि लोकतंत्र है तो गुलामी कैसी? लेकिन फिर वही कहूँगा कि साहब आज के समाज की यही स्थिति है। ये लोकतान्त्रिक गुलामी मानसिक गुलामी है जिसके अंधियारे में लोग इतना सुखी महसूस करते हैं (या यूँ कहें कि उन्हें सुखी महसूस करवाया जाता है) कि अब उन्हें रौशनी रास नहीं आती बल्कि उन्हें उससे डर लगता है।
अब चूँकि लेख लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है तो सम्भावना है कि पाठक शायद मुझे किसी राजनीतिक पार्टी का सिपाही समझ रहे हों, लेकिन यह स्पष्ट कर दूँ कि मुझे किसी पार्टी से कोई लगाव नहीं। यदि लगाव और चिंता है तो वह है समाज की और अपने देश की। राजनीति पर ज़ुबान खोलना या कलम चलाना बहुत ही संवेदनशील विषय है लेकिन जीवन में यह जोखिम लिया जा सकता है, देश के लिए और समाज के लिए।
अब मुद्दे पर वापस आते हैं, जिस मानसिक गुलामी की बात की जा रही है वह कहाँ से आई है। प्रश्न गूढ़ है और उत्तर बहुत ही सरल। “अंधविश्वास”, जी हाँ अन्धविश्वास ही इस गुलामी की जड़ है। अंधविश्वास जैसा शब्द अक्सर आध्यात्मिक गुरुओं से जोड़ा जाता है जिसके प्रत्यक्ष उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। यही अंधविश्वास हमें मानसिक गुलामी देता है। इसपर अनेकों प्रश्न उठते हैं, आइये उन्हें जानने का प्रयास करते हैं।
प्रश्न संख्या १ : हमारा विश्वास जीतने के मायने और मापदंड क्या हैं?
यदि घोषणाओं और वादों से, किसी जाति, धर्म, संप्रदाय विशेष को आरक्षण या विशेषाधिकार देकर, अच्छे दिन के सपने दिखाकर, दूसरे दलों पर दोषारोपण कर और स्वयं को सर्वोच्च बताकर कोई हमारा विश्वास जीत पा रहा है तो हमारे मापदंडों में ही दोष है। और सच्चाई भी यही है वरना आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारी स्थिति ऐसी न होती। हमें नेता के चुनाव के मापदंडों को बदलना होगा, अन्धविश्वास बंद करना होगा।
प्रश्न संख्या २ : क्या हम अपने स्वार्थ से इस मानसिक गुलामी के शिकार हैं?
ये प्रश्न तो बहुत ज़रूरी है, और यह बात भी बहुत सच्ची है कि हममें से ज़्यादातर लोग स्वार्थी हैं और अपना सुख साधने हेतु किसी भी हद तक जा सकते हैं। अमुक व्यक्ति के नेता बनने से हमारा यदि कोई निजी फायदा होता हो तो हमें बाकी समाज की कोई फ़िक्र नहीं रहती। लेकिन जनाब आगे जलती हुई लकड़ी पीछे भी आती है। थोड़ा यदि समाज के लिए सोचें तो अपनी आने वाली पीढ़ी को बेहतर भविष्य दे पाएँगे।
प्रश्न बहुत हैं जिनको इस ब्लॉग पोस्ट के अगले भाग में सबके बीच रखेंगे। आपकी इस पोस्ट पर प्रतिक्रिया कमेंट कर अवश्य साझा करें।
सधन्यवाद।
4 Comments
neema chamoli
(November 9, 2017 - 10:47 pm)nyc bolg bro..
swarnalimukherjee
(November 10, 2017 - 6:36 am)Beautiful piece vivek and I can reciprocate with each and every thought. Good job. Keep writing and inspiring.
vivektariyal
(November 10, 2017 - 10:17 am)Thanks Swarna ….. Means a lot to me 🙂
Asha Tariyal Ranghar.
(November 10, 2017 - 4:20 pm)Nice approach…..beautiful work